घोटालों से घिरे, मगर जनता के दिलों में बसे – ये है लालू यादव की कहानी

जब भी भारत की राजनीति में ज़मीनी नेताओं की बात होती है, तो लालू प्रसाद यादव का नाम बिना किसी झिझक के लिया जाता है। वे न सिर्फ एक राजनीतिक नेता हैं, बल्कि एक विचार, एक शैली और एक दौर का नाम हैं। एक ऐसा नेता जिसने गरीबी और सामाजिक भेदभाव के बीच से निकलकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक का सफर तय किया, और फिर जेल की सलाखों के पीछे से भी अपनी राजनीतिक पकड़ नहीं छोड़ी।

Written by: Himanshi Prakash, National Khabar

एक साधारण किसान का बेटा जो बन गया “जनता का मसीहा”

लालू यादव का जन्म 11 जून 1948 को बिहार के गोपालगंज जिले के एक सामान्य यादव परिवार में हुआ। बचपन में गरीबी देखी, लेकिन पढ़ाई नहीं छोड़ी। पटना यूनिवर्सिटी में छात्र राजनीति की शुरुआत की और यहीं से उनकी नेतृत्व क्षमता चमकने लगी। जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में उन्होंने हिस्सा लिया और 1977 में सबसे कम उम्र के सांसद बनकर संसद पहुंचे।

“सामाजिक न्याय” का चेहरा

1990 में जब लालू मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने बिहार की राजनीति की धुरी ही बदल दी। उन्होंने पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों को न केवल वोट बैंक के तौर पर देखा, बल्कि उन्हें राजनीतिक सत्ता में भागीदारी दी। उनका नारा – “भूरा बाल साफ करो” – सीधे तौर पर सामाजिक ढांचे को चुनौती देता था। ये साहसिक और विवादास्पद था, लेकिन इससे उन्हें जबरदस्त जनसमर्थन मिला।

विरोधियों के तंज और मज़ाक – ‘लालू’ नाम, जनता के लिए हास्य, विरोधियों के लिए हथियार

लालू की विशिष्ट बोलचाल और ठेठ देसी अंदाज़ को लेकर *विपक्षी पार्टियों ने खूब तंज कसे। भाजपा, कांग्रेस और यहां तक कि टीवी चैनलों और कॉमेडी शोज़ ने भी उन्हें लगातार निशाने पर रखा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें *”जंगलराज का जनक” कहा, वहीं भाजपा के अन्य नेताओं ने उन्हें “चारा चोर” तक कहा।
उनकी देसी भाषा पर बार-बार यह तंज कसा गया कि —

“लालू की भाषा संसद की नहीं, मंडी की है!”

चारा घोटाले के बाद मीडिया और सोशल मीडिया पर उन पर गाय के चारे से लेकर ट्रेन के घाटे तक हर बात पर मीम्स और चुटकुले बने।
जब उन्होंने राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया और बाद में बेटे तेजस्वी को सत्ता में लाया, तो विरोधियों ने उन्हें “राष्ट्रीय जनता दल नहीं, राष्ट्रीय परिवार दल” कहकर ताना मारा।

लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि लालू ने कभी इन तंजों का बुरा नहीं माना — बल्कि उन्हें अपनी ताक़त में बदल दिया। वे कहते थे:
और सिर्फ घोटाले ही नहीं है लालू ने बिहार के लिए कुछ योजनाऔ में भी हाथ रहा

लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल (मुख्यमंत्री: 1990-1997) से जुड़े कुछ प्रमुख योजनाएं,
1990–1997: लालू यादव के मुख्यमंत्री कार्यकाल के प्रमुख डेटा पॉइंट्स और योजनाएं

1. सामाजिक न्याय और आरक्षण

5. अपराध और विवाद

“1990 में जब लालू मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने बिहार की राजनीति की धुरी ही बदल दी…”

…और सामाजिक न्याय को प्रशासनिक फैसलों में उतारा। 1993 में उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर OBC आरक्षण को मजबूती दी। पंचायती राज में पिछड़ों और महिलाओं को आरक्षण दिया। 1995 में शुरू हुई “मुख्यमंत्री ग्राम शिक्षा योजना” से गांवों में प्राथमिक शिक्षा की नींव रखी गई।

“हँसी उड़ाते रहो, जनता हमारी बात सुन रही है!”

विवादों से घिरी विरासत

1996 में चारा घोटाले ने उनकी छवि को गहरा धक्का पहुंचाया। करोड़ों रुपये के इस घोटाले में CBI की जांच के बाद उन्हें जेल जाना पड़ा। लेकिन लालू ने हार नहीं मानी – उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया और खुद पर्दे के पीछे से राजद की बागडोर संभाले रहे। यही उनकी राजनीतिक चतुराई थी, जिसने उन्हें “सियासत का शेर” बना दिया।

लालू की राजनीति: बोलचाल में भोजपुरिया, सोच में रणनीतिक

लालू के भाषणों में हास्य, व्यंग्य और देसी टच हमेशा रहा। वे मंच पर कहते – “हम बिहार को जंगलराज नहीं, जंगल का राजा बनाएँगे” – और जनता तालियाँ बजाती। उनके आलोचक कहते हैं कि उन्होंने राज्य के विकास की अनदेखी की, लेकिन उनके समर्थक कहते हैं कि लालू ने पहली बार गरीब को सत्ता का स्वाद चखाया।

वर्तमान स्थिति: बीमारी, पर प्रभाव कायम

आज लालू यादव 76 वर्ष के हो चुके हैं और कई स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं। पटना एम्स से लेकर दिल्ली के हॉस्पिटल तक उनके इलाज की खबरें आती रही हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने INDIA गठबंधन को समर्थन दिया और चुनाव प्रचार में वर्चुअल तरीके से शामिल हुए। हालांकि वह अब सक्रिय राजनीति से दूरी बनाए हुए हैं, लेकिन पार्टी की रणनीति में आज भी उनकी अहम भूमिका रहती है।

उत्तराधिकारी: तेजस्वी के कंधों पर विरासत

लालू की राजनीतिक विरासत अब उनके बेटे तेजस्वी यादव संभाल रहे हैं। 2020 में तेजस्वी ने महागठबंधन को 75 सीटों तक पहुँचाया और 2022-23 में बिहार के उपमुख्यमंत्री भी बने। लालू उन्हें अपना असली वारिस मानते हैं, जबकि तेज प्रताप यादव और परिवार के अंदर मतभेद भी किसी से छिपे नहीं हैं।

लालू प्रसाद यादव सिर्फ एक नेता नहीं, बल्कि एक आंदोलन हैं – सामाजिक न्याय, क्षेत्रीय राजनीति और सत्ता के लोकतंत्रीकरण का प्रतीक। उनकी शख्सियत पर विरोधियों ने जितना तंज कसा, उतना ही जनता ने उन्हें अपनाया। राजनीति में उनका कद गिरा नहीं – सिर्फ रूप बदला।
2025 के विधानसभा चुनाव भले उनके बेटे लड़ें, लेकिन हर चुनावी रणनीति के पीछे आज भी लालू की सोच की छाया होगी। क्योंकि लालू को हराया जा सकता है, भुलाया नहीं जा सकता।

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