अपनी जगह फिर बनाती जा रही है हिंदी ! गर्व से कहो “हिंदी हैं हम”
रिपोर्ट- भारती बघेल
हिंदी और केवल हिंदी ही हमारी राष्ट्रभाषा बन सकती है। मैं अंग्रेजों से द्वेष नहीं रखता मगर यह भी लगता है कि कुछ कामों के लिए कुछ लोगों को अंग्रेजी सीखनी चाहिए। लेकिन हमारे अन्य कार्यों के लिए अदालतों और केंद्रीय विधानसभा में राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी होनी चाहिए। इसके अलावा दूसरी भाषा में कामकाज चलाने से राष्ट्र को नुकसान पहुंचता है। उपरोक्त दोनों कथन भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हैं। जो तमिलनाडु के मदुरै और मुंबई में दो अलग-अलग मौकों पर कहे गए थे।
यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि आरंभ में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा हिंदी पट्टी से बाहर के हमारे स्वाधीनता संग्राम के उन नायकों ने दिया था। 1864 में महाराष्ट्र के विद्वान श्रीमान पेंठे से लेकर 1873 में बंगाल के समाज सुधारक केशव चंद्र सेन जैसे मनीषियों ने महसूस कर लिया था, कि राष्ट्र की एकता के लिए हिंदी अनिवार्य है। बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, असम से लेकर दक्षिण में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल आदि हिंदी राज्यों के महापुरुषों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाते हुए स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा बना लिया।
ऐसे में यह देखना दुखद है कि आज जैसे ही हिंदी को अंग्रेजी के विकल्प के रूप में देश में अपनाने की बात होती है। इस पर विरोध के राज शुरू हो जाते हैं। दरअसल आजादी के कुछ पहले ही जब मद्रास प्रांत में कांग्रेस सरकार ने हिंदी लागू करने की कोशिश की थी, तब अंग्रेजों के परोक्ष समर्थन से हिंदी विरोधी आंदोलन हुआ था। इसी तरह छठे और सातवें दशक में भी हिंदी विरोध को लेकर जज्बाती आंदोलन हुए। राजनीति का यह आलम है कि जिस बंगाल में केशव चंद्र सेन, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, श्री अरबिंदो और नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि के द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात शुरु हुई थी। वहां भी राजनीतिक स्वार्थ के लिए हिंदी विरोध में गाहे-बगाहे स्वर उठते रहते हैं।
हिंदी तक राज्यों में हिंदी को लेकर अगर विवाद उठता है तो इसमें हिंदी भाषी राज्यों की भी भूमिका है। बड़ी संख्या में दक्षिण के छात्र हिंदी पढ़ते हैं, लेकिन हिंदी भाषी सरकारों ने यह कभी नहीं सोचा कि हमें भी एक क्षेत्रीय भाषा खासतौर से दक्षिण की कोई भाषा पढ़ानी चाहिए। एनईपी 2020 के अनुसार स्कूलों में कम से कम 2 भारतीय भाषाएं पढ़ाई जाएंगी। कितना अच्छा होगा कि हिंदी भाषी राज्य तीसरी भाषा के रूप में एक क्षेत्रीय भाषा खासतौर से दक्षिण की कोई भाषा पढ़वाएं। ऑनलाइन शिक्षण की नई व्यवस्था में इन भाषाओं का पठन-पाठन कठिन नहीं होगा। इसमें शिक्षा मंत्रालय की वेबसाइट ‘स्वयं’ और टेलीविजन चैनल ‘स्वयंप्रभा’ से भी मदद मिल सकती है।
इससे संघ की अस्मितावादी राजनेताओं को भाषाई राजनीति भड़काने का मौका नहीं मिल पाएगा। इस विवाद के पीछे कुछ लोगों की अभिजनवादी मानसिकता भी है। इसमें शशि थरूर जैसे हिंदीतर लोग ही नहीं हिंदी पट्टी का अभिजन वर्ग भी शामिल है। आजादी के बाद दुर्भाग्य से शिक्षा का पूरा मॉडल औपनिवेशिक प्रभाव से आक्रांत और अंग्रेजी पर शिक्षाविदों के हाथ में ही रहा। यही अभिजन वर्ग दुष्प्रचार करता है कि हिंदी में सामर्थ्य नहीं है। अथवा यह कि हिंदी जटिल है। जबकि यह जटिलता इन्हीं की देन है। मूल पाठ भी अंग्रेजी में तैयार करते हैं, जिनका जैसे- तैसे हिंदी अनुवाद कर दिया जाता है।
हिंदी के स्वाभाविक प्रकृति से अनभिज्ञ और अनुकूल ना होने के कारण इस अनूदित हिंदी ने हिंदी का बेड़ा ज्यादा गर्क किया है। ज्ञान- विज्ञान के विषयों में स्तरीय और प्रमाणिक सामग्री उपलब्ध हो, इसके लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन एंड इंटरप्रिटेशन’ की स्थापना की अनुशंसा की गई। जिसके लिए तेजी से कार्य हो रहा है।
इसके अतिरिक्त हिंदी पट्टी के कुछ संकीर्ण तत्वों द्वारा हिंदी की विभिन्न बोलियों को स्वतंत्र भाषा का दर्जा देने और आठवीं अनुसूची में डालने की तुच्छ स्वार्थ भरी मांग एक अन्य समस्या है। जिसे आमजन को समझना चाहिए। हमें हिंदी को मजबूत और अंग्रेजी के विकल्प के तौर पर लाना है तो इसे देश की भाषा बनना ही होगा।
सहमति के साथ राजभाषा बनी थी हिंदी
जैसे ही हिंदी को देशभर में संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग की बात शुरू होती है, दक्षिण भारतीय राज्यों में विरोध के स्वर मुखर होने लगते हैं। मुख्यतः तमिलनाडु इस विरोध का गढ़ रहा है। इस मामले में हमें ध्यान रखना चाहिए कि संविधान सभा में 12 से 14 सितंबर 1949 तक चर्चा के बाद हिंदी को राजभाषा बनाने पर सहमति बनी थी। इसमें दक्षिण के नेताओं का भी समर्थन था।
विरोध की आग बहुत पुरानी
महात्मा गांधी ने 1918 में अपने बेटे देवदास गांधी को भेजकर मद्रास में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना कराई। उस समय दक्षिण के बड़े नेता सी. राजगोपालाचारी का उन्हें समर्थन मिला। राजा स्वामी नायकर जैसे द्रविड़ नेता भी इसके समर्थक थे। दुर्भाग्य की बात है कि वही मद्रास कुछ ही वर्षों के बाद हिंदी विरोध का गढ़ बन गया। दरअसल 1937 में सी राजगोपालाचारी के नेतृत्व में मद्रास प्रेसिडेंसी में कांग्रेस सरकार बनी थी। 1938 में सरकार ने माध्यमिक विद्यालय में हिंदी को अनिवार्य करने का फैसला किया। उस समय आत्मसम्मान आंदोलन का नेतृत्व कर रही पेरियार कि जस्टिस पार्टी ने इस फैसले का विरोध किया। जो राज्यव्यापी हिंदी विरोधी आंदोलन में बदल गया।
1939 में राजगोपालाचारी सरकार ने त्यागपत्र दे दिया। 1940 में अंग्रेज गवर्नर ने फैसला वापस ले लिया। फैसला वापस से उस समय विरोधी थम तो गया लेकिन वह चिंगारी सुलगती रह गई।
15 साल में हटानी थी अंग्रेजी
संविधान सभा में तय हुआ कि किसी विदेशी भाषा में कामकाज से देश का नुकसान होगा। तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए अंग्रेजी को हिंदी के साथ राज कार्यों की भाषा बनाया तो गया लेकिन इसकी मियाद भी तय की गई थी। निर्णय हुआ कि 15 वर्ष में अंग्रेजी को राजकाज की भाषा से हटा दिया जाएगा। हालांकि ऐसा नहीं हो पाया। और आज भी अंग्रेजी वहीं बनी हुई है।
संस्कृतियों के बीच टकराव का दे दिया गया रुप
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद फिर पेरियार की अगुवाई में हिंदी विरोध की आग भड़कने लगी थी। जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर द्रविड़ कषगम हो चुका था। धीरे-धीरे यह आग भाषा विरोध की लड़ाई ना होकर द्रविड़ और आर्य संस्कृतियों की लड़ाई में बदल गई। इसी के परिणाम स्वरूप संविधान सभा में मुंशी अयंगर फार्मूले पर सहमति बनी और हिंदी को राजभाषा बनाने के साथ ही अंग्रेजी को भी 15 साल कामकाज की भाषा बनाए रखा गया।
दंगों की आग में जला प्रदेश
1949 के अन्नादुरै ने पेरियार से अलग होकर द्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी बनाई। एम करुणानिधि भी उनके साथ हो गए। हिंदी के विरोध में जन भावनाओं को उभारने का काम जारी रहा। संविधान सभा के बनी सहमति के अनुसार 26 जनवरी 1965 से अंग्रेजी को कामकाज की भाषा के तौर पर हटाना था। इसे देखते हुए 1963 में राजभाषा विधेयक लाया गया। राज्यभाषा में अन्नादुरै ने इसका विरोध किया। विधेयक पास होने के बाद तमिलनाडु में सड़कों पर प्रदर्शन शुरू हो गए।
25 जनवरी 1965 को मदुरै में दंगे भड़क गए। कई लोगों को जान भी गंवानी पड़ी। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के आश्वासन के बाद लोग शांत हुए। फिर फैसला लिया गया कि जब गैर हिंदीभाषी राज्य चाहेंगे तब तक अंग्रेजी राजकाज की सहायक भाषा बनी रहेगी।
अंग्रेजी इसलिए बनी हुई है अहम
हिंदी के विकास की चर्चा के बीच यह सवाल महत्वपूर्ण है कि आखिर देश में अंग्रेजी इतनी अहम क्यों बनी हुई है। नजर डालते हैं अंग्रेजी की अहमियत बताने वाले कुछ बिंदुओं पर।
- अंग्रेजी वैश्विक भाषा है। दुनिया में हर पांचवां व्यक्ति अंग्रेजी बोल सकता है, या कम से कम अंग्रेजी समझ सकता है।
2. विज्ञान कंप्यूटर समेत बहुत से आधुनिकतम विषयों में पढ़ाई के लिए अंग्रेजी मुख्य भाषा है। इसे पढ़ने से रोजगार के अवसर बनते हैं।
3. वर्तमान समय में इंटरनेट की उपयोगिता का कोई कार्य नहीं कर सकता। इंटरनेट की मुख्य भाषा भी अंग्रेजी ही है। दुनिया की कुछ सबसे बड़ी टेक कंपनियां अंग्रेजी बोलने वाले देशों में ही है।
4. अंग्रेजी 50 से ज्यादा देशों की आधिकारिक भाषा है। और इसके अलावा कई अन्य देशों के लोग भी विदेशियों से संपर्क के लिए अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। लगभग पूरी दुनिया में अंग्रेजी में पढ़ाई का विकल्प उपलब्ध है। अच्छी अंग्रेजी जानने वाला पढ़ाई के बेहतर अवसर प्राप्त करने में सक्षम होता है।