देश

भारत में मेडिकल शिक्षा का कमजोर ढांचा, सरकार को करने होंगे ठोस उपाय !

रिपोर्ट- भारती बघेल

यूक्रेन में चल रहे रुसी हमलों के बीच भारत में चिकित्सा शिक्षा को लेकर एक बड़ी बहस खड़ी हो गई है। खासकर महंगी चिकित्सा शिक्षा के साथ आबादी और आवश्यक्ता के अनुपात में एमबीबीएस की डिग्री पाना बेहद कड़ी प्रतिस्पर्धा या संपन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि से ही संभव है, लेकिन यह भी तथ्य है कि आजादी के बाद देश में चिकित्सा शिक्षा के ढांचे को कभी गंभीरता से सुगठित करने के प्रयास नहीं हुए।

1947 के बाद देश की आबादी तो सात गुना बढ़ी, लेकिन मेडिकल कॉलेज नहीं। हांलाकि मोदी सरकार के आने के बाद चिकित्सा शिक्षा के ढांचे और नियमन के सशक्त बनाने का काम आरंभ हुआ है। 1940 से 2014 की मध्य अवधि तक सालाना औसतन छह नए मेडिकल कॉलेज देश में निर्मित हुए, वहीं 2015 से यह आंकड़ा 29 नए मेडिकल कॉलेज प्रतिवर्ष का है।

आज देश में चिकित्सा महाविद्यालयों की संख्या 568 है, जिनमें 89,875 एमबीबीएस एवं 46,118 पीजी सीटें उपलब्ध है। 2014 में देश के सभी मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की सीटें 53,348 एवं पीजी की सीटें 23,000 थीं। इन मेडिकल कॉलेजों में लगभग आधे यानी 276 निजी हैं। यानी देश के मध्यम वर्ग के लिए मेडिकल शिक्षा का रास्ता बेहद प्रतिस्पर्धी और खर्चीला है।

नतीजन बड़ी संख्या में बच्चे एमबीबीएस की डिग्री लेने के लिए यूक्रेन, रुस, फिलीपींस, चीन, तजाकिस्तान और यहां तक कि बांग्लादेश का भी रुख करते हैं। इन देशों में बगैर नीट जैसी कठिनतम परीक्षा के सीधे मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश मिल जाता है। एमबीबीएस की पढ़ाई पर भारत में औसतन एक करोड़ रुपये निजी मेडिकल कॉलेजों में लगता है, वहीं इन देशों में 20 से 25 लाख रुपये ही आता है। सरकारी कॉलेजों में सालाना फीस औसतन एक लाख रुपये के आसपास है। करीब 40 हजार बच्चे हर साल विदेश में मेडिकल शिक्षा लेने जाते हैं।

2021 में करीब 17 लाख बच्चों ने नीट की परीक्षा दी और दाखिला मिला 87 हजार को यानी केवल 5% को। ऐसे में रूस, यूक्रेन, चीन जैसे देशों का विकल्प स्वभाविक ही मध्यमवर्ग को लुभाता है। हाल में मोदी सरकार ने निर्णय लिया है कि अब निजी मेडिकल कॉलेजों की आधी सीटों की फीस संबंधित राज्यों के सरकारी मेडिकल कॉलेजों जितनी होगी, मगर सवाल इसके अनुपालन का है।

निजी मेडिकल कॉलेज चलाने वाले आम लोग नहीं है ऐसे कॉलेज वास्तव में नेता, नौकरशाह और धनी कारोबारियों का ऐसा सिंडिकेट चलाता है जो मुनाफे के लिए सरकारी तंत्र को ही प्रभावित करने की ताकत रखता है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना ,कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी के साथ महाराष्ट्र ने देश की कुल स्वीकृत एमबीबीएस सीटों में से 48% हिस्सा अपने यहां ले रखा है। खास बात यह है कि 276 निजी मेडिकल कॉलेजों में से 165 इन सात प्रांतों में ही स्थित हैं।
इन 7 देशों प्रदेशों में से केवल 105 कॉलेज ही सरकार चलाती है।

अब तस्वीर का दूसरा पक्ष रूस, यूक्रेन लड़ाई के ताजा संदर्भ में समझा जा सकता है। यूक्रेन में फंसे मेडिकल छात्रों में अधिकतर बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा ,झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल जैसे हिंदी भाषी प्रांतों के हैं। इन प्रांतों की लगभग 65 करोड़ आबादी पर देश की कुल एमबीबीएस सीटों में से उपलब्धता केवल 30% है। यहां एमबीबीएस की कुल सीट संख्या 25,325 है।

इन प्रांतों में कुल 176 मेडिकल कॉलेज हैं। जिनमें 72 निजी एवं 104 सरकारी क्षेत्र के हैं। नागालैंड देश का ऐसा प्रांत है, जहां एक भी मेडिकल कॉलेज नहीं है। स्पष्ट है देश में चिकित्सा शिक्षा का ढांचा केवल क्षेत्रीय असंतुलन, बल्कि बेहतर नियमन के अभाव में भी बुरी तरह गड़बड़ाया हुआ है। यह सही है कि पिछले 7 वर्षों में नीतिगत स्तर पर सुधार के कुछ बुनियादी कदम उठाए गए हैं, लेकिन अभी एक लंबा सफर तय किया जाना शेष है। केंद्र सरकार ने एक जिला एक मेडिकल कॉलेज के जिस विचार को अपनाया है उसे एक मिशन की तर्ज पर लेना होगा। एक देश, एक स्वास्थ्य नीति एक बेहतर विकल्प है।

सभी प्रांतों को अपने राजनीतिक हितों को छोड़कर नीट जैसे एकीकृत मॉडल पर अपनी सहमति देनी चाहिए ताकि मेडिकल शिक्षा का ढांचा समरूपता के साथ आगे बढ़ सके। आयुष की उपचार पद्धति को प्रतिष्ठित करने की भी कोशिश करनी होगी, ताकि एलोपैथी के लिए मारामारी खत्म हो। यह भी तथ्य है कि मेडिकल शिक्षा नियमन का काम एक बड़े सिंडिकेट के हवाले रहा है जिसने इसे मुनाफे का धंधा बनाया है। सरकारी क्षेत्र के लिए नए कॉलेज खोलने के रास्ते को मेडिकल माफिया ने दुरुह बना कर रखा है।

बेहतर होगा कि राज्य और केंद्र के झगड़ों को विराम देकर हर जिले में एक समग्र मेडिकल कॉलेज खोलने की जवाबदेही केंद्र सरकार अपने कंधों पर ले। ऐसे समग्र मेडिकल कॉलेजों में एलोपैथी के साथ आयुष और अन्य परंपरागत भारतीय पद्धतियों के पाठ्यक्रम उसी तरीके से चलाए जाएं जैसे एलोपैथी के चलाए जाते हैं। पीजी डिग्री के लिए इंग्लैंड की तर्ज पर जिला एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र यानी सीएचसी को केंद्र बनाया जाए। चिकित्सा शिक्षा और लोक स्वास्थ्य के अलग-अलग ढांचों को देशभर में एकीकृत तंत्र के दायरे में लाना भी जरूरी है।

यह भी समय की मांग है कि देश के सभी विश्वविद्यालयों को बहू-विषयक बनाकर चिकित्सा शिक्षा से जोड़ा जाए। जैसा कि हाल में जेएनयू में किया गया है। आशा की जानी चाहिए कि रूस यूक्रेन युद्ध के बाद चिकित्सा शिक्षा को लेकर खड़ा विमर्श ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह गायब होने के स्थान पर नीतिगत बदलाव का वाहक बनेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *