कठिन होता कांग्रेस का कायाकल्प, आखिर कौन है उसकी दुर्गति का जिम्मेदार ?
नेशनल खबर डेस्क रिपोर्ट
सवाल ये है कि देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की दुर्गति का जिम्मेदार आखिर कौन है? कई जानकारों के अलावा पार्टी के भीतर भी इसके लिए गांधी परिवार को जिम्मेदार माना जा रहा है। यह निष्कर्ष सच तो है किंतु यह पूरी सच्चाई नहीं है। क्या इस संदर्भ में केवल गांधी परिवार को ही दोष आरोपित करना उचित होगा? पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में हार के बाद सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं। राहुल गांधी परोक्ष रूप से पार्टी के निर्णायक फैसले ले रहे हैं। तमाम कोशिश के बावजूद प्रियंका गांधी वाड्रा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति में कोई सुधार नहीं कर पाईं। वस्तुतः परिवारवाद कांग्रेस की समस्याओं की जड़ है तो उसके बीच भी पार्टी नहीं बोए थे।
इसकी शुरुआत जवाहरलाल नेहरू के दौर में हो गई थी परिणाम स्वरुप विगत साढ़े सात दशकों में एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए, तो कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर गांधी परिवार ही काबिज रहा है। इसमें पिछले ढाई दशकों के दौरान पार्टी की राजनीतिक जमीन खिसकती ही गई। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या नेतृत्व परिवर्तन से ही पार्टी का कायाकल्प संभव है? स्पष्ट है कि समस्या केवल इतनी नहीं कि कांग्रेस में विश्वसनीय नेतृत्व का अभाव है। हाल के कुछ वर्षों का राजनीतिक रुझान यही दर्शाता है कि जहां भी कांग्रेस तीसरे स्थान पर पहुंची, वहां वह दोबारा नहीं भरपाई। दिल्ली इसका सबसे ताजा उदाहरण है।
राजस्थान और छत्तीसगढ़ ही अब दो ऐसे राज्य हैं जहां कांग्रेस की अपने दम पर सरकार बची है। राज्यसभा में उसके सदस्यों की संख्या सिमट कर रह गई है। अपने आरंभिक काल में कांग्रेस में विविध विचारधारा वालों के लिए स्थान था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महामना मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय और गांधीजी यह सभी भारत की सनातन संस्कृति से प्रेरणा पाते थे। गांधी जी के दर्शन से हत्या के बाद जब कांग्रेस पर नेहरू का एकाधिकार हुआ, तो पार्टी के मूल सनातनी और बहुलतावादी चरित्र को धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दिया गया।
इसमें रही सही कसर इंदिरा गांधी ने पूरी कर दी। 1969 में जब कांग्रेस दो फाड़ हुई और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आई, तब संसद में उन्हें अपनी सरकार बचाने हेतु 41 सांसदों की आवश्यकता थी। इस कमी को वामपंथियों ने बाहरी समर्थन देकर पूरा किया। इंदिरा ने उन कम्युनिस्टों के सहारे अपनी सरकार बचाई ,जिनका अपने उद्भव काल से एकमात्र एजेंडा भारत की सनातन संस्कृति, परंपरा और जीवन शैली पर प्रहार करना रहा। इसी दर्शन के कारण वामपंथियों ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अंग्रेजों के लिए मुखबिरी की। गांधी जी, नेताजी और देशभक्तों को अपशब्द कहे। पाकिस्तान के जन्म में मुस्लिम लीग और अंग्रेजों के साथ मिलकर महती भूमिका निभाई। भारतीय स्वतंत्रता को अस्वीकार करके उसे 17 देशों के समूह माना गया।
1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद के जिहादी रजाकारों के साथ तो 1962 के भारत-चीन युद्ध में वैचारिक समानता के कारण चीन के पक्ष में खड़े रहे। इसके अतिरिक्त सन् 1967 में लोकतंत्र विरोधी नक्सलवाद को भी जन्म दिया। जब 1971 में लोकसभा चुनाव हुए तब इंदिरा गांधी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया, उस वक्त तमाम वामपंथी न केवल कांग्रेस में शामिल हुए, बल्कि उन्हें शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विभाग सौंपे गए। इसी दौर में कांग्रेस ने अपनी मूल गांधीवादी विचारधारा को वामपंथियों को आउटसोर्स कर दिया, जो अब भी उसे उससे केचुली की भांति चिपकी हुई है।
कांग्रेस का सार्वजनिक व्यवहार उस घिसे- पिटे वामपंथी व्याकरण से निर्धारित हो रहा है, जिसमें उसका भी कोई दृढ़ विश्वास नहीं है। कांग्रेस ऐसा केवल इसलिए करने को विवश है, क्योंकि विचारधारा के मामले में वह पहले ही 0 हो चुकी है। काले चश्मे पहने कॉन्ग्रेस जाने -अनजाने में तभी से वामपंथियों के साथ मुस्लिम लीग के अधूरे एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। चाहे देश पर आपातकाल थोपना हो, या शाहबानो मामले में मुस्लिम समाज में सुधार के प्रयासों को रोकना हो। परमाणु परीक्षण का विरोध करना हो, या भगवान श्रीराम को काल्पनिक बताना हो। उनमें कांग्रेस की हिंदू विरोधी और मुस्लिम तुष्टीकरण की मानसिकता प्रत्यक्ष होती है।
मानो इतना ही काफी नहीं 2005 से 2011 के बीच केवल हिंदुओं को लक्षित करता सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण अधिनियम लाया गया। जेएनयू परिसर में भारत विरोधी नारों का समर्थन करने से लेकर सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह किया गया। ऐसे अंतहीन उदाहरणों की लंबी सूची है यदि कांग्रेस के सिकुड़ते जनाधार के लिए केवल गांधी परिवार ही जिम्मेदार है, तो क्या यह सत्य नहीं है कि कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह, पी चिदंबरम और सुशील कुमार शिंदे आदि ने हिंदू भगवा आतंकवाद को बाहर आकर वामपंथी एजेंडे के अनुरूप विमर्श नहीं गढ़ा था? क्या सर्वोच्च न्यायालय में बन रहे राम मंदिर के खिलाफ पैरवी करने वालों में कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल मौजूद नहीं थे? क्या देश द्वारा बने कोविड-19 रोधी टीके की दक्षता पर सवाल उठाने वालों में शशि थरूर जैसे कांग्रेस नेता आगे नहीं थे? फिल्म कश्मीर फाइल्स का विरोध करते हुए कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार को प्रोपेगेंडा और हत्याओं के आंकड़ों को फर्जी बताने वालों की शुरुआत क्या कांग्रेस की केरल इकाई की नहीं की थी ?
मई 2014 में मिली करारी हार की पड़ताल के लिए गठित एक समिति ने भी माना था कि पार्टी की छवि हिंदू विरोधी हो गई है। इसके बाद आधे- अधूरे मन से कांग्रेस ने अपनी गलती को सुधारने का प्रयास बहुत भोंडेपन के साथ किया। एक और चुनाव प्रचार में पार्टी के शीर्ष नेता राहुल गांधी जनेऊ पहन कर मंदिर मंदिर घूम कर स्वयं को सच्चा हिंदू स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे, तो दूसरी ओर उनके कार्यकर्ता ने केरल में सरेआम गाय के बछड़े को मारा। स्वभाविक है कि इससे पार्टी को ना ही कोई वांछनीय फल मिला और न ही जनमानस प्रभावित हुआ। चिंतन के मामले में कांग्रेस और वामपंथियों की एक खराब कार्बन कॉपी बनकर रह गई है। कांग्रेस तभी पुनर्जीवित हो सकती है जब वह संकीर्ण परिवारवाद से बाहर निकले और वामपंथ एवं उसके अर्बन नक्सल संस्करण से मुक्ति पाए। क्या वर्तमान समय में ऐसा होना संभव है?